गोवा में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी चुनौतियाँ लगातार गहराती जा रही हैं। ऐसे में अब इस मुद्दे पर एक महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए राज्य मानवाधिकार आयोग ने गोवा सरकार के मुख्य सचिव से जवाब तलब किया है। आयोग से जुड़े एक सामाजिक कार्यकर्ता ने पत्र लिखकर यह मांग की है कि राज्य सरकार मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं पर पर्याप्त वित्तीय प्रावधान करे और लोगों को कानून द्वारा गारंटीकृत अधिकार उपलब्ध कराए।
एक सामाजिक कार्यकर्ता ने हाल ही में राज्य मानवाधिकार आयोग को एक विस्तृत पत्र सौंपा है। इस पत्र में उन्होंने “मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017” (Mental Health Care Act, 2017) के प्रमुख प्रावधानों को रेखांकित किया और बताया कि किस तरह से राज्य सरकारें इस कानून को लागू करने में सुस्ती बरत रही हैं। कार्यकर्ता का तर्क है कि मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता देने की बजाय इसे हाशिये पर रखा जाता है, जबकि आज के दौर में डिप्रेशन, तनाव, आत्महत्या और नशे की लत जैसी समस्याएँ तेजी से बढ़ रही हैं।
कार्यकर्ता की शिकायत को गंभीरता से लेते हुए गोवा राज्य मानवाधिकार आयोग ने मुख्य सचिव से रिपोर्ट मांगी है। आयोग ने पूछा है कि राज्य सरकार ने अब तक मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं और अधिनियम के प्रावधानों को लागू करने के लिए कितना बजट निर्धारित किया है और उसका उपयोग किस प्रकार हो रहा है।
आयोग ने यह भी स्पष्ट किया है कि यदि मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम के प्रावधानों की अनदेखी की जाती है तो यह सीधे-सीधे नागरिकों के बुनियादी अधिकारों का उल्लंघन होगा।
मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017 को पूरे देश में लागू किया गया था। इसका उद्देश्य मानसिक रोगियों को बेहतर इलाज और सम्मानजनक जीवन का अधिकार सुनिश्चित करना है। इसके कुछ अहम बिंदु इस प्रकार हैं:
स्वास्थ्य का अधिकार: हर नागरिक को मानसिक स्वास्थ्य सेवाएँ प्राप्त करने का कानूनी अधिकार है।मर्यादा और गरिमा: मानसिक रोग से पीड़ित व्यक्ति के साथ भेदभाव या अपमान नहीं किया जा सकता।निःशुल्क इलाज: गरीब और जरूरतमंद लोगों को सरकारी अस्पतालों में मुफ्त उपचार उपलब्ध कराना अनिवार्य है।आत्महत्या को अपराध न मानना: इस अधिनियम के अनुसार आत्महत्या की कोशिश को अपराध नहीं बल्कि मानसिक तनाव का परिणाम माना गया है।अधिकार आयोग की भूमिका: यदि मानसिक स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध नहीं कराई जातीं, तो नागरिक अधिकार आयोग हस्तक्षेप कर सकता है।
गोवा एक छोटा राज्य है, लेकिन यहाँ मानसिक स्वास्थ्य की समस्याएँ बड़ी चुनौती बन चुकी हैं।
नशे की लत और पर्यटन से जुड़े दबावबेरोजगारी और आर्थिक असमानताशहरीकरण और परिवारिक तनावयुवा वर्ग में डिप्रेशन और आत्महत्या के मामले
ये सभी कारण मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की मांग को और अधिक बढ़ाते हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि गोवा जैसे राज्य में मानसिक स्वास्थ्य अस्पतालों और पुनर्वास केंद्रों की संख्या बहुत कम है।
कार्यकर्ता का आरोप है कि मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं पर राज्य सरकार द्वारा बहुत कम बजट खर्च किया जाता है। स्वास्थ्य क्षेत्र में बड़ी राशि शारीरिक बीमारियों और बुनियादी ढांचे पर खर्च की जाती है, जबकि मानसिक स्वास्थ्य को नजरअंदाज किया जाता है।
आयोग का मानना है कि मानसिक स्वास्थ्य को नज़रअंदाज़ करना समाज के लिए खतरनाक है क्योंकि इससे अपराध, आत्महत्या, हिंसा और सामाजिक असमानता जैसे मामले और बढ़ते हैं।
मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि गोवा सरकार को इस क्षेत्र में ठोस योजना बनानी चाहिए।
अधिक काउंसलिंग केंद्रों की स्थापनास्कूल और कॉलेज स्तर पर मानसिक स्वास्थ्य जागरूकता कार्यक्रमहेल्पलाइन नंबर और आपातकालीन सहायता सेवाएँसरकारी अस्पतालों में पर्याप्त मनोचिकित्सक और प्रशिक्षित स्टाफ
ये कदम राज्य की स्थिति में सुधार ला सकते हैं।
सामाजिक कार्यकर्ता ने आयोग को दिए पत्र में कहा है कि:
राज्य सरकार मानसिक स्वास्थ्य बजट का स्पष्ट ब्योरा सार्वजनिक करे।मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम के सभी प्रावधानों को पूरी तरह लागू किया जाए।मरीजों और उनके परिवारों को उचित परामर्श और इलाज उपलब्ध कराया जाए।मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को प्राथमिक स्वास्थ्य ढांचे से जोड़ा जाए।
अब यह देखना दिलचस्प होगा कि राज्य सरकार इस मामले में क्या कदम उठाती है। आयोग ने मुख्य सचिव को समय सीमा के भीतर जवाब देने का निर्देश दिया है। यदि जवाब संतोषजनक नहीं हुआ, तो आयोग इस मामले में आगे की कार्यवाही भी कर सकता है।
विशेषज्ञों का मानना है कि यह कदम सही समय पर उठाया गया है क्योंकि कोरोना महामारी के बाद मानसिक स्वास्थ्य संकट और भी गंभीर हो चुका है। समाज में डिप्रेशन, चिंता और तनाव की स्थिति तेजी से बढ़ी है, ऐसे में राज्य सरकार को और अधिक सतर्क रहने की ज़रूरत है।
मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017 सिर्फ कागजों तक सीमित न रहकर व्यवहारिक रूप से लागू हो, इसके लिए राज्य सरकार को वित्तीय और प्रशासनिक दोनों स्तरों पर जिम्मेदारी निभानी होगी। मानवाधिकार आयोग का यह हस्तक्षेप समाज के उन हजारों लोगों के लिए उम्मीद की किरण है जो मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की कमी से जूझ रहे हैं।








